Friday, December 11, 2020

गुड़िया

 


 

आज उस नन्ही गुड़िया को

 गुड़िया देने में डर लगता है ,

कहीं तुम इतनी नाजुक ना बन जाना,

कहीं तुम इस जैसी बेजुबान मत बन जाना,

ना बनना तुम किसी के हाथों की कठपुतली

 आज डर लगता है मुझे

 तुम कोई चीज बन कर ना रह जाना,

कोई सामान

 जो एक कमरे  के कोने में पड़ा रहे,

 किसी के घर को सजाने वाली रोशनी मत बन जाना

कि कोई भी तुम्हें भरमा सके, ऐसी

कमजोर मत बन जाना,

ना तुम्हें पत्थर ना मोम बनना है

 तुम्हें तो वज्र की तरह अभेद्य बनना है,

 ना तुम्हें गूंगी गुड़िया

 ना चाभी वाला खिलौना बनना है

 तुम्हें एक आजाद परिंदे की तरह

 अपनी उड़ान भरना है,  

 तुम उस पौध सी हो जिसको

 धूप, पानी, हवा, आजादी दे सीचा है मैंने अपने लहू से

तुम बढ़ना और आगे बढ़ना

रास्तों की रुकावट को पार करते हुए

बस चलना और

 अपनी रोशनी से दूसरो को जीने का संबल देना,

 तुम अपने में खास हो

कुछ तुम जैसी और मिलेगी तुमको

 उनका हाथ थामे  नयी क्यारियां रोपना

जो महकाएंगी दुनिया के आंगन को

अपने अतरंगी सपनों से,

उनमें रंग भरकर मजबूती से अपनी,

एक नया आसमान छूने को अग्रसर होना

 जो बदलेगी दुनिया का चेहरा,

 तब शायद मेरे जैसों को डर नहीं लगेगा

 तब शायद मेरे जैसों को डर नहीं लगेगा,

 तब शायद कोई एक गुड़िया को गुड़िया देने से पीछे नहीं हटेगा


This poem is from my poetry collection Alfaaz published in 2020

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